प्रकृति का संदेश
पूरी पृथ्वी स्थिर है, क्या अजीब मंजर है,
प्रकृति भी पूरे रौ में चुभो रही खंजर है ।
कैसा यह विनाश का हो रहा तांडव है,
रास्ते वीरान, पशु-पक्षी हैरान, जमीन भी अब बंजर है ।
आज सब कैद हैं अपने ही बनाए मकानों में,
कितनी महँगी है ज़िंदगी, यह मिलती नहीं दुकानों में ।
ये कैसी छाई वीरानी है और कैसी है ये मदहोशी,
सबके चेहरे सुर्ख है और पसरी है अजीब सी खामोशी ।
कल तक सारे लोग जो मौज में थे,
पता नहीं ! क्यों आज वही सब खौफ में है ।
क्या शूल बनके चुभ रही है हवा,
या प्रकृति दे रही है हम सभी को सजा ।
समस्त मानव जाति है तबाह और परेशान,
आज सबकी पड़ गयी है संकट में जान ।
जितनी निर्ममता से किया था दोहन प्रकृति का,
उतनी ही जल्दी संदेशा आया विपत्ति का ।
यही तो वक़्त है संभलने का,
कदम मिला कर प्रकृति संग चलने का ।
शांत बैठो, धैर्य रखो, बिगड़े को सुधरने दो,
वक़्त दो, साथ दो, प्रकृति को फिर से सँवरने दो ।
हरियाली का मान रखो, स्वयं को इंसान बना डालो,
स्वच्छता का हाथ थाम, बीमारी को मिटा डालो ।
होगी सतर्कता, सामंजस्य की नयी दृष्टि,
तभी खुशी के गीत फिर से गाएगी प्रकृति।
© तरुण आनंद
मेरी पहली कविता
ReplyDelete