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ज़िंदगी का अग्निपथ

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ज़िंदगी का अग्निपथ   आग सा धधकता , शूल सा चुभता , था खौफ का मंजर , रास्ते सभी बने खंजर                यही तो है ज़िंदगी का अग्निपथ । जिस पर है हरेक को चलना , पार उसके निकलना , कभी डूबना तो कभी तैरना                कर तू शपथ , ज़िंदगी का अग्निपथ ।। वो चलते रहे , थकते रहे , थमते रहे , गिरते रहे और गिर कर                फिर से संभलते भी रहे । उन्हे क्या पता था की ये ज़िंदगी है अग्निपथ , जिस पर पाँव मे उनके                शूल चुभते भी रहे ।। मगर जिद थी ज़िंदगी जीने की , चाह थी घर लौटने की , अपने लिए नहीं बल्कि उनके लिए ,                जो थे उनके इंतजार में पलकों को बिछाए । ना जाने कितने गम सहे , ना जाने कितनी रातें भूखे रहे , सर्द मौसम मे , गर्म हवाओं के बीच                जो बेहिसाब दर्द को थे अपने दिल मे छुपाए ।। मीलों की दूरियों को अपने आँसुओ से नापा , हौसलों की बारिश से प्यास को बुझाया                निरंतर चलते हुये पड़ गए पाँव मे छाले । फिर भी इस अग्निपथ पे , ना कभी वो झुके , ना कभी वो रुके , बस हर विघ्न को